क्रांतिकारी बागों की यादें ताजा करता शाहीन बाग का आंदोलन




आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों की लगभग सभी रणनीति बागों में बनती थी। यही वजह थी कि अंग्रेजी हुकूमत में हिन्दुस्तान के बाग बगावत के प्रतीक बन गए थे। आजादी की लड़ाई को के लिए बागों में होने वाली बैठकें और रणनीति की दास्तां शाहीन बाग की महिलाओं ने फिर से ताजा कर दी है।



सीएए के विरोध में शाहीन बाग में जिस तरह से आंदोलन हो रहा है, यह सब आजादी की लड़ाई के अंदाज में चल रहा है। जहां देश में आंदोलन विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक संगठनों की पहचान बनते रहे हैं वहीं शाहीन बाग आंदोलन पूरी तरह से जनता का आंदोलन माना जा रहा है। भले ही इस आंदोलन को सरकार एक धर्म विशेष से जोड़ कर चल रही है पर इस आंदोलन में हर वर्ग के लोग शामिल हो रहे हैं। साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार, शायर, कवि, खिलाड़ी यहां तक की बालीवुड की हस्तियां भी इसमें शिरकत कर रही हैं। इस आंदोलन का जनता पर पड़ा प्रभाव ही है कि बंटवारे के समय मुस्लिमों से सबसे अधिक खुंदश रखने वाले पंजाब से भी लोग शाहीन बाग आकर समर्थन दे रहे हैं। हाल ही में किसान-मजदूरों का 1100 का जत्था शाहीन बाग पहुंचा वह भी खाने-पीने का पूरा सामान लेकर। यह आंदोलन 'बागÓ के इर्दगिर्द घूम रहा है। सांसद असदुद्ीदन ओवैसी ने 8 फरवरी के बाद शाहीन बाग को जलियावाला बाग में तब्दील होने की आशंका व्यक्त की है।



देश में महात्मा गांधी के सत्याग्रह की बात प्रमुखता से होती है पर आज की तारीख में गिनती के ही लोग होंगे, जिनके पास सत्याग्रह की वह स्मृति होगी। गांधी का सत्याग्रह अंग्रेजों की गुलामी के विरोध में था तो शाहीन बाग का आंदोलन भी किसी सत्याग्रह से कम नहीं है। वह बात दूसरी है कि यह आंदोलन आजाद भारत की मोदी सरकार की तानाशाही के विरोध में है। जब शाहीन बाग और उससे प्रेरित होकर देश भर में होने वाले महिलाओं के आंदोलन को देखें तो शाहीन बाग लंबे समय के बाद देश में जनता के हो रहे बड़े आंदोलन की लकीर खींचता है। यह आंदोलन आजादी की लड़ाई में भागीदारी करने वाले उन आम लोगों की याद दिलाता है जो सब कुछ दांव पर लगाकर देश को आजाद कराने के लिए सड़कों पर उतर गये थे, जिस तरह से आम आदमी ने आगे बढ़कर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला था, उसी तर्ज पर यह आंदोलन हो रहा है। इस आंदोलन को जनांदोलन इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि अभी तक इस आंदोलन में कोई बड़ा नेता नहीं है। चाहे जेपी आंदोलन हो या फिर अन्ना आंदोलन या फिर दूसरे बड़े आंदोलन हर आंदोलन की अगुआई किसी बड़ी शख्सियत ने की है। इस आंदोलन की विशेषता यह भी है कि इसमें हर कोई आंदोलनकारी है वह भी अधिकतर महिलाएं।



निश्चित रूप से यह आंदोलन आजादी की लड़ाई के स्टाइल में हो रहा है पर मोदी सरकार अंग्रेजी हुकूमत में एक अंतर जरूर है कि अंग्रेजों के साथ जो भी सेना, पुलिस, सामंत जमींदार या जनता थी वह भयवश, मजबूरीवश और लोभ में थी। आज की सत्ता के साथ बड़े स्तर पर बहुसंख्यक हैं वह भी अपनी इच्छा से है। सेना, पुलिस, जमींदारी के रूप में पूंजपति किसी भयवश, मजबूरीवश नहीं बल्कि अपनी इच्छा है। सेना और पुलिस तो व्यवस्था का अंग है पर अधिकतर लोग सत्ता का फायदा उठाने के लिए मोदी सरकार से सटे हैं।



राजनीतिक और सामाजिक रूप से अनुभवहीन महिलाओं ने जिस रूप में इतने बड़े आंदोलन को, जिस संयम और अनुशासन से संगठित किया है वह बेमिसाल है। इससे प्रेरित हो देश भर में जितने भी छोटे-बड़े आंदोलन चल रहे हैं वह भी स्वत: ही तैयार हुए हैं। महिलाओं के आंदोलन में अनुशासन और आयोजकों की व्यवस्था की दाद देनी पड़ेगी कि गांधी भले ही चौरीचौरा की घटना न रोक पाए हों पर इन महिलाओं ने ऐसी कोई घटना नहीं होनी दी, जिससे कि आंदोलन प्रभावित हो जाए। यदि बात इतिहास की जाए जो इतिहास ऐसा कोर्स बर्तन नहीं होता कि जिसमें एक उबाल में सारा दूध बह जाए या जरा सी तेज़ आंच में जल कर खाक हो जाये ... इतिहास के पास अच्छी चीजों को सजाने और बचाये रखने के लिए जितने बेहतरीन मर्तबान होते है, तो उसके पास उतना ही बड़ा कूड़ेदान भी होता है। यह सत्ता पक्ष और विपक्ष, हम या आप नहीं बल्कि इतिहास तय करेगा कि मर्तबान में किन घटनाओं, परिघटनाओं को संजोया , सजाया जाएगा और किसे कूड़े दान में फेंका जाएगा।



यह शाहीन बाग आंदोलन की व्यापक्ता ही है कि जहां संसद, राज्यसभा में इसकी गूंज सुनाई दी वहीं हाल ही में दिल्ली में विधानसभा चुनाव के प्रचार में शाहीन बाग मुद्दा प्रमुखता से छाया रहा। देश के हर शहर, हर कस्बे में सैकड़ों-हजारों-लाखों लोगों का जन सैलाब सीएए के विरोध में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। भले ही इस आंदोलन में बड़े नेता न हों पर यह आंदोलन इंदिरा गांधी की सत्ता की चूलें हिला देने वाले जेपी आंदोलन या फिर मनमोहन सिंह की सरकार को बैकफुट पर ला देने वाले अन्ना आंदोलन से कहीं कम नहीं है। बल्कि यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से बिना नेतृत्व के इस आंदोलन ने देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी पहचान बनाई है, उसके आधार पर इसे इन सब आंदोलन से बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है। यह आंदोलन की व्यापकता ही है कि इसकी गूंज विदेशों- यूरोप, अमरीका और ऑस्ट्रेलिया के भी कई शहरों में सुनाई दे रही है। जहां महिलाएं, बच्चे और बुड्ढों समेत कलकत्ता के लोगों ने 11 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनाई वहीं केरल के नागरिकों ने मुख्यमंत्री विजयन के नेतृत्व में 620 किलोमीटर की। इस आंदोलन को तमाम प्रयास के बावजूद रोका नहीं जा रहा है। यहां तक पुलिस का दमन भी आंदोलनकारियों के जज्बे को रोक नहीं पा रहा है ।



13 दिसंबर 2019 को सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनयम के विरुद्ध दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय से शुरू हुए राष्ट्र-व्यापी आंदोलन को शाहीन बाग की महिलाओं ने एक नया आयाम दिया है। यह सरकार की दमनकारी नीतियां ही हैं कि युवा उमंगों के उफान को कुचलने के मकसद से 15 दिसंबर को पुलिस ने जामिया मिलिया के कैंपस में घुसकर आंदोलनकारी छात्र-छात्राओं पर हमला कर दिया। लाइब्रेरी में तोड़फोड़ कर हिंसक तांडव मचाया गया। इसने शाहीन बाग की महिलाओं का दिल दहला दिया और वे, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी, भगवा ब्रिगेड के सालों से मन में पैठे भय को त्याग कर आंदोलित हो गईं।



यह शाहीन बाग आंदोलन की धमक ही थी कि जो गृह मंत्री अमित शाह शाहीन बाग आंदोलन को कोई तवज्जो नहीं दे रहे थे उन्हीं अमित शाह ने ने विधान सभा चुनाव प्रचार में शाहीन बाग से दिल्ली की मुक्ति के लिए भाजपा को वोट देने की अपील की। दरअसल शाहीन बाग आंदोलन एक विचार बन चुका है, जिसे दिल्ली ने आत्मसात कर लिया है। शाहीन बाग न केवल दिल्ली बल्कि झारखंड के चुनाव में भी छाया रहा। चुनावी सभाओं में मोदी ने आंदोलन को कांग्रेस द्वारा भड़काया बताया तथा पहनावे से आंदोलनकारियों को पहचानने का सांप्रदायिक शिगूफा छोड़ा वह बात दूसरी है कि झारखंड की जनता ने मोदी के उस शिगूफे को नकारते हुए हेमंत सोरेन पर विश्वास व्यक्त किया।



शाहीनबाग आंदोलन जहां सत्ताधारियों की निरंकुशता को ललकार रहा है वहीं समझौतावादी प्रवृत्ति के लोगों को अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अपनी सोच बदलने का संदेश दे रहा है। जिस तरह से आंदोलन में तरंगे लहराए जा रहे हैं, राष्ट्रगान हो रहा है। नमाज अदा करने के साथ यज्ञ भी हो रहे हैं। उससे जहां एक भाईचारे का माहौल बन रहा है वहीं लोगों में देशभक्ति का भाव भी पैदा हो रहा है। यह अपने आप में एक मिसाल है कि इस आंदोलन की वाहक महिलाएं हैं। यह महिलाओं का चौखट को लांघकर सरकार को ललकारने का जज्बा ही है कि देशभर में महिलाओं और बच्चों ने आंदोलन की बागडोर संभाल ली है। यह आंदोलन इस बात का प्रतीक भी है कि भले ही 16वीं शताब्दी के यूरोपीय नवजागरण की अगली कतार में पुरुष थे पर 21वीं शताब्दी के इस नये जागरण की अगली कतार में महिलाएं हैं।